नाक़ामयाब होना भी काफ़ी है
सकूँ मिलता है
ख़ुद को नही शायद दीवारों को
सिमटी है जहाँ क़ैद होकर जिंदगी
ग़ुलाम है सभी फिर भी
कोशिश करते है हज़ार हर कोई
मैंने भी सीखी हैं
नाक़ामयाबी
महॅंगी हैं कीमत है सपनों की
बनाती है पक्की ईंट मुझकों भी
वही दीवार सी होकर
जहाँ क़ैद है जिंदगी ।।
नाक़ामयाब होना भी है काफ़ी
बहुत कुछ लगता है हिम्मत भी ।
Tag / कवि की कल्पना
सड़क
दो कदम जाता हूँ
लौट आता हूँ
कभी मुस्कुराता हूँ
कभी गुन गुनाता हूँ
अपनी तन्हा हुई उम्र में
हैरान होकर मुँह छुपा गुजर जाता हूँ
जीवन को समझ नही पाता हूँ
दो कदम जाता हूँ
फिर लौट आता हूँ
ईश्वर से न कुछ पूछ पता हूँ
सड़कों के सहारे
जीवित गतियों में गुन गुनाता हूँ
असफलता के लहरों में
द्रवित दिनकरो के प्रहरों पे
शब्दों के टूटे चिंन्ह और चहरो पे
मायूसी के प्रश्न चिन्ह लगता हूँ
कुछ खिंची लकीरों के
कुछ फीकी तस्वीरों पे
रूठे समर्पित चहरो पे
आशंकाओं के ईंट लगाता हूँ
बीती गलियों और चौराहों में
भूले बिसरे भिखर जाता हूँ
शिखर पर थक कर
शिखर से दूर पता हूँ
दो कदम जाकर
फिर लौट आता हूँ
कभी मुस्कुराता हूँ
कभी गुनगुनाता हूँ
दसको से इस ठहरी सड़क को
अपनी जीवन के रीढ़ पता हूँ ।
दो कदमों में ही सीमित
सपनों को धीर पता हूँ……..
हाँ तुम
जो ख़्वाब में रहा उस ख्वाब के लिए ,
जो शायरी न बन सका उस अल्फ़ाज़ के लिए ।।
न बन सका हकीकत हर उस ख़्वाब के लिए ।
हाँ तुम
*
ना तूँ कभी थी
ना तूँ कभी आयेगी
जीवन की सुनहरी शाम
यूँ ही ढल जायेंगी ।।
*
ना भींगेगा सावन ,
ना भागती घड़ियाँ गुन गुनाएँगी ,
ढलते राहों के बसंत में अब –
कलियाँ ना मुस्कराएगी ।
ऋतूवे ना शर्माएँगी ,
टूटे भ्रम से जागकर –
आत्म कुंठा से स्वयं में सिमट जाएँगी !
*
ना तू कभी थी ,
ना तू कभी आएगी,
ऋतुवे ,ख़ुश्बू , नक्षत्र और ब्यार
और मेरे ह्रदय की कोरी कल्पनाएँ
मेरे एकल वास की गहराइयों में
यूँ ही मिट जायेंगी !
और आत्म त्रश्ना के लहरें..
वक़्त के चक्रवात में उभर कर,
नियति के साहिल पर टूट कर मिल जाएँगी !
*
ना तू कभी थी,
ना तू कभी आयेगी,
फिर क्यूँ सोचूँ
फिर क्यूँ सिकडु
तेरे खोये ख़्यालों में ?
*
जब वक़्त की कड़ियाँ
उम्र की टहनियों में सुख जाएँगी !
टूट जाएँगी भिखर कर
या
बह जाएँगी जीवनमंडल में ,
कोशों दूर जाकर ..
संयम सत्य के बाँध लगायेगी
जहाँ ह्रदय की स्पंदन,
शून्य से मिल जायेंगी !
*
बहुत ठहरी थी जिंदिगी
अब शायद और बाक़ी नहीं ,
ना तुम कभी थीं …
ना तुम कभी आओगी !
*
कोरी कल्पना – अतुल शुक्ला
एक बार ही सही चलो साथ मुस्कुराते है
सुनो बदरी बरखा झूम रही है
पृथ्वी तारे जमघट की बिंदिया सब घूम रही है
तुम खोई हो यादों में
मेरी बिछड़ी यौवन की बातों में
गलियारों में झिलमिल ओझल सब रीत गयी है
जैसे मेरी तेरी कुछ रातें ,
कुछ बांकी है और कुछ बीत गयी है …
.
लौट आता हूँ मैं चौराहों से
बिखरे टूटे दो राहों से
तेरी गलियों के सुने निगाहों से
की सुनो न तुम बस मेरी एक बात
लौट आओ तुम बस आखिरी बार
हमसे तुमसे ये रातें कुछ पूँछ रही है
क्या दोगी तुम मेरा साथ ??
.
बस कह दो एक बार
गुमसुम सी ही सही इस बार
.
क्या तुम दोगी मेरा साथ ?
अगर इस बार कहूँ की –
.
चलो आखिरी बार साथ मे मुश्कुराते है ,
ढलती उम्र में हमे तुम्हें खुद से खुद को …
यूँ ही सही खुद को भूल जातें हैं !!!
.
एक बार ही सही चलो साथ मुस्कुराते है !
– अतुल शुक्ला