दो कदम जाता हूँ
लौट आता हूँ
कभी मुस्कुराता हूँ
कभी गुन गुनाता हूँ
अपनी तन्हा हुई उम्र में
हैरान होकर मुँह छुपा गुजर जाता हूँ
जीवन को समझ नही पाता हूँ
दो कदम जाता हूँ
फिर लौट आता हूँ
ईश्वर से न कुछ पूछ पता हूँ
सड़कों के सहारे
जीवित गतियों में गुन गुनाता हूँ
असफलता के लहरों में
द्रवित दिनकरो के प्रहरों पे
शब्दों के टूटे चिंन्ह और चहरो पे
मायूसी के प्रश्न चिन्ह लगता हूँ
कुछ खिंची लकीरों के
कुछ फीकी तस्वीरों पे
रूठे समर्पित चहरो पे
आशंकाओं के ईंट लगाता हूँ
बीती गलियों और चौराहों में
भूले बिसरे भिखर जाता हूँ
शिखर पर थक कर
शिखर से दूर पता हूँ
दो कदम जाकर
फिर लौट आता हूँ
कभी मुस्कुराता हूँ
कभी गुनगुनाता हूँ
दसको से इस ठहरी सड़क को
अपनी जीवन के रीढ़ पता हूँ ।
दो कदमों में ही सीमित
सपनों को धीर पता हूँ……..