एक बार ही सही चलो साथ मुस्कुराते है



सुनो बदरी बरखा झूम रही है
पृथ्वी तारे जमघट की बिंदिया सब घूम रही है
तुम खोई हो यादों में
मेरी बिछड़ी यौवन की बातों में
गलियारों में झिलमिल ओझल सब रीत गयी है
जैसे मेरी तेरी कुछ रातें ,
कुछ बांकी है और कुछ बीत गयी है  …
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लौट आता हूँ मैं चौराहों से
बिखरे टूटे दो राहों से
तेरी गलियों के सुने निगाहों से
की सुनो न तुम बस मेरी एक बात
लौट आओ तुम बस आखिरी बार
हमसे तुमसे ये रातें कुछ पूँछ रही है
क्या दोगी तुम मेरा साथ ??
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बस कह दो एक बार
गुमसुम सी ही सही इस बार
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क्या तुम दोगी मेरा साथ ?
अगर इस बार कहूँ की –
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चलो आखिरी बार साथ मे मुश्कुराते है ,
ढलती उम्र में हमे तुम्हें खुद से खुद को …
यूँ ही सही खुद को भूल जातें हैं !!!
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एक बार ही सही चलो साथ मुस्कुराते है !
– अतुल शुक्ला