हाँ तुम

जो ख़्वाब में रहा उस ख्वाब के लिए ,

जो शायरी न बन सका उस अल्फ़ाज़ के लिए ।।

न बन सका हकीकत हर उस ख़्वाब के लिए ।

हाँ तुम

*

ना तूँ कभी थी
ना तूँ कभी आयेगी
जीवन की सुनहरी शाम
यूँ ही ढल जायेंगी ।।

*

ना भींगेगा सावन ,
ना भागती घड़ियाँ गुन गुनाएँगी ,
ढलते राहों के बसंत में अब –
कलियाँ ना मुस्कराएगी ।
ऋतूवे ना शर्माएँगी ,
टूटे भ्रम से जागकर –
आत्म कुंठा से स्वयं में सिमट जाएँगी !

*

ना तू कभी थी ,
ना तू कभी आएगी,
ऋतुवे ,ख़ुश्बू , नक्षत्र और ब्यार
और मेरे ह्रदय की कोरी कल्पनाएँ
मेरे एकल वास की गहराइयों में
यूँ ही मिट जायेंगी !
और आत्म त्रश्ना के लहरें..
वक़्त के चक्रवात में उभर कर,
नियति के साहिल पर टूट कर मिल जाएँगी !

*

ना तू कभी थी,
ना तू कभी आयेगी,
फिर क्यूँ सोचूँ
फिर क्यूँ सिकडु
तेरे खोये ख़्यालों में ?

*

जब वक़्त की कड़ियाँ
उम्र की टहनियों में सुख जाएँगी !
टूट जाएँगी भिखर कर
या
बह जाएँगी जीवनमंडल में ,
कोशों दूर जाकर ..
संयम सत्य के बाँध लगायेगी
जहाँ ह्रदय की स्पंदन,
शून्य से मिल जायेंगी !

*

बहुत ठहरी थी जिंदिगी
अब शायद और बाक़ी नहीं ,
ना तुम कभी थीं …
ना तुम कभी आओगी !

*

कोरी कल्पना – अतुल शुक्ला

http://www.korikalapana.wordpress.com