नाकामयाबी

नाक़ामयाब होना भी काफ़ी है
सकूँ मिलता है
ख़ुद को नही शायद दीवारों को
सिमटी है जहाँ क़ैद होकर जिंदगी
ग़ुलाम है सभी फिर भी
कोशिश करते है हज़ार हर कोई
मैंने भी सीखी हैं
नाक़ामयाबी
महॅंगी हैं कीमत है सपनों की
बनाती है पक्की ईंट मुझकों भी
वही दीवार सी होकर
जहाँ क़ैद है जिंदगी ।।

नाक़ामयाब होना भी है काफ़ी
बहुत कुछ लगता है हिम्मत भी ।

विद्रोही की कविता

जव दुर्जन बम्हन जै बिचार करे
कोशिश कोसो बार करे
छाती सिमेट , बुद्धि से हुंकार भरे
बस कदम बढ़ावे
सबसे दो दो चार करे ।

अंदर बाहर की राह रचे
मैं बम्हन विद्रोही सा
कोसिस अलंघ्य छितिज पार करे
जीवन रेखाओं में अंकित कर्णो पर
शब्द काव्य के राख रचे ,

सबसे विपरीत स्वयं की राम रमे
जव बम्हन हट पे अड़कर
चलकर शब्द स्वयं श्रृंगार करे
बस कदम बढ़ावे राह रचे ।

जग विपरीत जव प्रहार करे
स्वयं सम्भू भी इंकार करे
तो थम कर , थाम विद्रोही कुछ
अनिर्णय अप्रिय अपरिचित विचार करे
कवि कटु धूमकेतु से स्वभाव रचे
विचार करे अभिचार करे
करे तो दो दो चार करे ।

– अतुल

चलना सीखो

चलना सीखो

चौराहों से आगे बढ़कर
दिशा दे रहे पताका और फेरे न पढ़कर
तुम सिर्फ़ अपना लक्ष्य पढ़ो ,
बढ़े चढ़ो !
चलना सीखो , बढ़ना सीखो !

मैं नही कहता तुम अंतर्द्वंद्व को जानो
मेरे नास्तिक स्वर की ताल को मानो ,
मूढ़ जाओ चौक पर भी तुम ,
लेकिन
गलियों कूचों दरवाजों के आगे बढ़कर ,
पत्थर से न लड़कर , बस चढ़कर
आगे बढ़ने की मंशा से
तुम बस चलना सीखो !

रुको मत तुम मीठी तीखी आवाज़ो को सुनकर ,
मत पूछो रेखाओ को ,
फैले भिखरे रिवाज़ो को
बंद करो चौखट खट खटाना !
मंदिर मस्जिद मीनारों को ठिकाना !
फ़ूल ताबीजों को माथे पर लगाना !
पकड़ो धारा को अपनी मुट्ठी में तिनक सा ,
माथे में चंदन सा यश पान करो ,
अपने जीवन का सम्मान करो !

राह तअपनी खुद पहचानों !
दर से डरकर भी मत हारो ,
जीवन में तुम चलना सीखो !
कुछ लायक न होकर भी ;
आस करो , प्रयास करो ,


चलना सीखो , बढ़ना सीखो ।

- अतुल शुक्ला